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रस की परिभाषा और उपयोगिता (Definition and Importance of Ras – Taste)
“रसनार्थो रसस तस्य” अर्थात् जो हमारी रसना, यानी जीभ (tongue) का विषय हो, उसे रस कहा जाता है।जिसे हम अपनी जीभ के द्वारा पहचानते हैं कि अमुक द्रव्य का अमुक स्वाद है, वही रस कहलाता है। रस की उत्पत्ति में मुख्यतः जल और पृथ्वी महाभूत कारण होते हैं, और रस के विशेष ज्ञान के लिए
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त्रिफला रसायन (Triphala)
आयुर्वेद जगत से बाहर भी, अधिकतर लोगों को “त्रिफला” के बारे में सुना होगा। चाहे वे लोग इसे जैसे भी उपयोग कर रहे हों, त्रिफला का सेवन अच्छे स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है। त्रिफला में तीन फल होते हैं: त्रिफला को रसायन की तरह सेवन करने की विधि: जब भी इस तरह से सेवन करें
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सिंहनाद गुग्गुल वटी (Singhnad Guggul Vati)
यह एक आयुर्वेदिक दवा है जिसे मुख्य रूप से आमवात (गठिया वात) रोग में प्रयोग किया जाता है। गुग्गुल (Commiphora mukul) नामक पौधे का निर्यास इस औषधि का मुख्य घटक है, जिसे विशेषकर वात रोगों में प्रभावी माना गया है। गुग्गुल की विशेषता यह है कि: “कोष्ठ संधि अस्थिवायु: वृक्षम इंद्री शनि यथा” इसका तात्पर्य
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शरद ऋतु (Autumn Season)
आयुर्वेद के अनुसार एक संवत्सर, अर्थात एक वर्ष में कुल 6 ऋतुओं का उल्लेख मिलता है: शिशिर, वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद और हेमंत। अंग्रेजी महीने के हिसाब से सितंबर और अक्टूबर का महीना शरद ऋतु के अंतर्गत आता है। शरद ऋतु की विशेषता यह है कि इस समय सूर्य पिंगल वर्ण (हल्का लाल रंग) का
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घृत (Importance of “Ghrit” in Ayurveda)
आयुर्वेद में घृत का महत्व आयुर्वेद में ४ महास्नेह (घृत, तैल, वसा, मज्जा) बताए गए हैं, जिनमें से एक है घृत (जिसे घी, आज्य, या सर्पि भी कहा जाता है)। घृत को सभी में श्रेष्ठ माना गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि घृत जिस भी पदार्थ में मिलाया जाता है, उसके गुणों को
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पाण्डु व्याधि के सामान्य लक्षण (Symptoms of Anemia)
पाण्डु व्याधि (अनीमिया) का कारण वात और पित्त दोष होते हैं। इस रोग में रोगी की त्वचा पाण्डु वर्ण (थोड़ी सफेद और थोड़ी पीली), हरिद्रा (हल्दी) या फिर हरे रंग की हो जाती है। इसके कुछ अन्य सामान्य लक्षण निम्नलिखित हैं: ये सभी लक्षण पाण्डु व्याधि में देखे जाते हैं, जिनकी पहचान से रोग की
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आयुर्वेद में देहाग्नि (कायाग्नि) (Concept of Agni in Ayurveda)
हमारे शरीर की आयु, वर्ण, बल, ओज, तेज, स्वास्थ्य, उपचय ये सभी अग्नि पर ही निर्भर होते हैं। जब तक देहाग्नि है, तब तक ये सारी चीजें बनी रहती हैं। कहा भी गया है: “शांते अग्नो म्रियते, युक्ते चिरम जीवति अनामयः” (शरीर की अग्नि शांत हो जाती है तो मृत्यु हो जाती है, और यदि
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रोगी परीक्षा (Patient Examination)
आयुर्वेद के विभिन्न ग्रंथों में रोगी की परीक्षा का उल्लेख मिलता है, जैसे कि चरक संहिता में “दक्षविध रोगी परीक्षा”, योग रत्नाकर में “अष्टविध रोगी परीक्षा”, वागभट्ट संहिता में “त्रिविध रोगी परीक्षा” इत्यादि। आज मैं “त्रिविध रोगी परीक्षा” के बारे में लिख रहा हूं: “दर्शनं स्पर्शनम् प्रश्नेन च परिक्षेत् रोगीनाम“ 1. दर्शन (Observation) इसमें रोगी
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अभ्यंग (तेल मालिश) (Importance of “Oil Massage” in Ayurveda)
आयुर्वेद स्वस्थवृत्तचर्या में अभ्यंग की उपादेयता यह है कि अभ्यंग च चिरे नित्यम जरा श्रम वातहा यदि नित्य तेल के द्वारा शरीर में अभ्यंग किया जाए तो जरा (बुढ़ापा) नहीं आती, श्रम (थकावट) दूर होता है और वातज रोगों का नाश होता है।शरीर में बल और स्निग्धता के लिए “तिल तेल” को श्रेष्ठ कहा गया
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नेत्र रोगी के लिए (For Eye Disorder Patients)
आयुर्वेद में “नेत्र” और “चक्षु” अलग-अलग हैं।नेत्र अगर अधिष्ठान (स्थूल संरचना) है, तो चक्षु इन्द्रिय (सूक्ष्म इन्द्रिय) है। “सर्व शाकम अचक्षुस्यम, चक्षुसाय शाक पंचकम्”(सभी प्रकार की शाक-सब्जियाँ नेत्र रोगियों के लिए उपयुक्त नहीं हैं, परन्तु कुछ विशेष शाक नेत्र रोगियों के लिए लाभकारी हैं।) नेत्र रोगी के लिए आहार निर्देश: नेत्र रोगी को किसी भी









