यवक्षार आयुर्वेद की एक दिव्य औषधि है, जिसका निर्माण निम्नलिखित विधि द्वारा किया जाता है:

सबसे पहले यव (जौ) के पौधे को जलाकर उसकी राख बना ली जाती है। इस राख को एक बर्तन में रखकर उसकी मात्रा से 8 गुना पानी मिलाया जाता है। फिर इस मिश्रण को अच्छी तरह हाथों से मसल कर एक मोटे कपड़े से छाना जाता है। छाने हुए पानी को एक बर्तन में पकाते हैं जब तक कि पूरा पानी उड़ न जाए। इसके बाद बर्तन की तली में हल्के पीले रंग की परत जम जाती है, जिसे खुरचकर संग्रहित कर लिया जाता है। यही परत यवक्षार कहलाती है।

यवक्षार के गुण: यह औषधि दीपन और पाचन गुणों से युक्त होती है। चिकित्सा में इसके विभिन्न प्रयोग इस प्रकार हैं:

  • सिध्म (छुल या सेन्हुआ, एक प्रकार का चर्म रोग): यवक्षार को सरसों के तेल में मिलाकर लगाने से रोग में आराम मिलता है।
  • पेशाब में जलन: यवक्षार को छोटी इलायची के चूर्ण के साथ खाने पर जलन से राहत मिलती है।
  • अश्मरी (renal calculus या पथरी): यवक्षार का मट्ठे के साथ सेवन आराम पहुंचाता है।
  • प्लीहा वृद्धि (spleenomegaly): यवक्षार को सेंधा नमक, हींग, सोंठ, काली मिर्च और पीपल के साथ मिलाकर खाने से लाभ होता है।
  • सुजाक रोग (gonorrhoea): यवक्षार को बबूल रस के साथ खाने पर आराम मिलता है।
  • वस्ति शूल (urinary bladder का दर्द): यवक्षार को काली मिर्च और सोंठ के साथ गर्म पानी में लेने पर लाभ होता है।
  • प्ल्यूरिसी (pleurisy) के कारण हृदय में दर्द: यवक्षार को पुनर्नवा रस के साथ खाने पर दर्द में राहत मिलती है।
  • भूख न लगना और अपच: यवक्षार को जीरा पाउडर, सोंठ, काली मिर्च और पीपल के साथ मिलाकर गर्म पानी से लेने पर पाचन संबंधी समस्याएं दूर होती हैं।

यवक्षार के विभिन्न प्रयोग इसके स्वास्थ्य-लाभकारी गुणों का परिचायक हैं और इसे आयुर्वेद में महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हैं।

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