आयुर्वेद मतानुसार रोगी की अष्टविध परीक्षा में एक परीक्षा मूत्र परीक्षा है, जिसके द्वारा रोगी को किस दोष का रोग हुआ है और रोगी का रोग ठीक होगा या नहीं, यह पता चल जाता है।

मूत्र संग्रह काल (Collection time of urine)


जिस रोगी के मूत्र की परीक्षा करनी हो तो उसका मूत्र रात के अंतिम प्रहर से ४ घटिका (१ घटिका=24 minutes) पूर्व, रोगी को उठाकर मध्य धार का मूत्र इकट्ठा करना चाहिए।

मूत्र परीक्षा में दोषों को जानने के उपाय


  • यदि मूत्र का रंग पाण्डु (हल्का पीला) हो तो, वात दोष से उत्पन्न रोग होगा।
  • यदि मूत्र का रंग रक्त (लाल) हो तो, पित्त दोष से उत्पन्न रोग होगा।
  • यदि मूत्र का रंग फेन युक्त (झागदार) हो तो, कफ दोष से उत्पन्न रोग होगा।
  • यदि मूत्र का रंग कृष्ण (काला) हो तो, सन्निपात दोष से उत्पन्न रोग होगा।
  • अजीर्ण (indigestion) का रोगी होगा तो उसका मूत्र चावल के पानी जैसा होगा।
  • नवीन ज्वर के रोगी का मूत्र धुंआ जैसा होगा।

मूत्र की तैल बिंदु परीक्षा


मूत्र की तैल बिंदु परीक्षा से हम रोगी के दोष और रोग ठीक होगा या नहीं, इसका पता लगा सकते हैं।
तैल बिंदु परीक्षा के लिए रोगी के मूत्र को एक बर्तन में रखते हैं, उस स्थिर मूत्र में तेल की बूंद को किसी लकड़ी या पतले धागे से धीरे से छोड़ते हैं।
उसके बाद ध्यान से देखते हैं:

  • अगर तेल की बूंद “सर्पाकार” (सांप की तरह) हो जाए तो समझें कि रोगी वात रोग से परेशान है।
  • अगर तेल की बूंद “छत्राकार” (छाते की तरह) हो जाए तो समझें कि रोगी पित्त रोग से परेशान है।
  • अगर तेल की बूंद “मुक्ताकार” (मोती की तरह) हो जाए तो समझें कि रोगी कफ रोग से परेशान है।

इसके अलावा यह भी पता चलता है कि:

  • अगर मूत्र में तेल फैल जाए तो रोगी ठीक हो जाएगा (रोग साध्य)
  • अगर मूत्र में तेल न फैले तो रोगी थोड़ा कठिनाई से ठीक होगा (रोग क्रिच्छसाध्य)
  • अगर मूत्र में तेल डूब जाए तो रोगी ठीक नहीं होगा (रोग असाध्य)

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