आयुर्वेद में घृत का महत्व
आयुर्वेद में ४ महास्नेह (घृत, तैल, वसा, मज्जा) बताए गए हैं, जिनमें से एक है घृत (जिसे घी, आज्य, या सर्पि भी कहा जाता है)। घृत को सभी में श्रेष्ठ माना गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि घृत जिस भी पदार्थ में मिलाया जाता है, उसके गुणों को बढ़ा देता है, चाहे वह आहार हो या औषधि।
घृत के गुण-धर्म (Qualities of घृत)
घृत के गुण-धर्म उसे आयुर्वेद में विशेष स्थान दिलाते हैं:
- शीत वीर्य होने के कारण यह पित्त दोष को शांत करता है।
- मधुर रस होने से यह वात दोष को भी संतुलित करता है।
- मंद गुण के कारण यह शरीर में लंबे समय तक असर बनाए रखता है, जिससे इसके लाभकारी प्रभाव अधिक समय तक बने रहते हैं।
घृत का प्रयोग आहार और औषधियों में इसे आयुर्वेद में एक अनमोल सामग्री बनाता है। इसके अद्वितीय गुणों के कारण, यह शरीर में संतुलन और स्वास्थ्य बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
घी का सेवन करने से शरीर में स्निग्धता आती है, नेत्र के लिए हितकारी होता है, और जिनकी कोष्ठाग्नि मंद हो, उनके लिए घी का सेवन अग्नि की वृद्धि में सहायक होता है। स्मृति और मेधा बढ़ाने में भी घी का उपयोग होता है।
घृत जितना पुराना हो, उतना ही गुणकारी होता है। आयुर्वेद में घृत के लिए स्नेह कल्पना निर्धारित है, जिसके तहत कुछ हर्बल द्रव्यों को मिलाकर स्नेहपाक विधि से “औषधीय घृत” का निर्माण किया जाता है, जो विभिन्न रोगों में प्रयोग होता है।
घृत का नामकरण
आयुर्वेद में घृत का नामकरण उसके समय के आधार पर किया गया है जैसे –
- 10 साल तक के घृत को — “पुराण घृत”
- 10-100 साल तक के घृत को — “प्रपुराण घृत”
- 100-1100 साल तक के घृत को — “कुम्भ सर्पि”
- 1100 साल से ऊपर के घृत को — “महासर्पि”
उपरोक्त सभी प्रकार के घृत का प्रयोग मानस रोग, उन्माद (psychosomatic disorder), अपस्मार (epilepsy), मूर्च्छा आदि में किया जाता है।
नवीन घृत (New Clarified Butter)
जो घृत एक साल के अंदर का हो, उसका प्रयोग रोग विशेष के हिसाब से “पाण्डु” (anaemia), “कामला” (jaundice) और नेत्र रोग में करने का विधान है।
किसको घृत का सेवन नहीं करना चाहिए
- कफज रोग से पीड़ित व्यक्ति
- विसूचिका रोग से पीड़ित व्यक्ति
- राजयक्ष्मा (tuberculosis) से ग्रस्त व्यक्ति
- मदात्यय (मद्य पान जनित रोग) से पीड़ित व्यक्ति

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