आयुर्वेद के विभिन्न ग्रंथों में रोगी की परीक्षा का उल्लेख मिलता है, जैसे कि चरक संहिता में “दक्षविध रोगी परीक्षा”, योग रत्नाकर में “अष्टविध रोगी परीक्षा”, वागभट्ट संहिता में “त्रिविध रोगी परीक्षा” इत्यादि।
आज मैं “त्रिविध रोगी परीक्षा” के बारे में लिख रहा हूं:
“दर्शनं स्पर्शनम् प्रश्नेन च परिक्षेत् रोगीनाम“
1. दर्शन (Observation)
इसमें रोगी को सबसे पहले देख कर उसके दोष प्रकृति का ज्ञान होता है:
- वात प्रकृति रोगी लक्षण
- दुबला-पतला शरीर
- जोड़ों (joints) की स्पष्टता
- छोटे कंधे
- मटमैली आंखें
- छोटा ललाट
- छोटे नाखून
- हाथ, पैर, आंख, भौंहें चलती रहती हैं
- पित्त प्रकृति रोगी लक्षण
- पके हुए बाल
- मध्यम शरीर
- आंखों में पीलापन
- मध्यम ललाट
- कफ प्रकृति रोगी लक्षण
- हृष्ट-पुष्ट शरीर
- बड़ी, सफेद आंखें
- चौड़ा ललाट
- घने, स्निग्ध बाल
- चौड़े कंधे
2. स्पर्शन परीक्षा (Touch Examination)
इस परीक्षा में रोगी को छू कर उसके दोष प्रकृति का ज्ञान होता है:
- वात प्रकृति रोगी लक्षण
- त्वचा (skin) रूखी, सूखी, और ठंडी महसूस होती है।
- पित्त प्रकृति रोगी लक्षण
- त्वचा गरम महसूस होती है।
- कफ प्रकृति रोगी लक्षण
- त्वचा गीली, चिकनाई युक्त, और ठंडी महसूस होती है।
3. प्रश्न परीक्षा (Question Examination)
इस परीक्षा में रोगी से प्रश्न पूछ कर उसके आहार शक्ति, व्यायाम शक्ति, कोष्ठाग्नि एवं दोष प्रकृति का ज्ञान होता है।
दोषों का विभाजन और चिकित्सा
जब रोगी परीक्षा होती है, तब रोगी के शरीर में दोषों का ज्ञान होता है। सामान्यतया, शरीर को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है:
- कफज रोग – उर्ध्व भाग (शीर्ष) में होते हैं।
- पित्तज रोग – मध्य भाग में होते हैं।
- वातज रोग – अधो भाग में होते हैं।
दोषों की शोधन चिकित्सा:
- कफज रोग – वमन
- पित्तज रोग – विरेचन
- वातज रोग – वस्ति
दोषों की शमन चिकित्सा:
- कफज रोग – मधु
- पित्तज रोग – घृत
- वातज रोग – तैल

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